भोजपुरी लोकजीवन के अंग - नृत्य, वाद्य आ गीत - संगीत- प्रो. जयकान्त सिंह
भोजपुरी लोकजीवन के अंग - नृत्य, वाद्य आ गीत - संगीत - प्रो. जयकान्त सिंह लोककला जन समुदाय का संगठित समाज के द्योतक ह। स्थानीयता आ जातीयता के एकर विशेषता बतावल जाला। एकरा के सामान्य जन समुदाय से पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्राप्त पारंपरिक सम्पत्ति कह सकिले। एकर जड़ ओह समाज के अन्दर तक पहुँचल होला। स्वाभाविकता एकरा बोधगम्यता के सहजता प्रदान करेला। ई मुख्य रूप से चार तरह से अभिव्यक्त होले - आंगिक, अभिनय, निर्मित आ वाचिक। अल्पना - रंगोली, चउका - पूरन, मेंहदी, गोदना, कोहबर - लिखाई, घर चउकेठाई, भित्तिचित्र आदि आंगिक लोककला के नमूना हवें स। माटी, पत्थर, आ धातुअन के खिलौना, गृहसज्जा, काठ शिल्प, अलंकार - आभूषण आदि निर्मित लोककला के उदाहरण हवें स। लोक नृत्य आ नाटक आदि अभिनय लोक कला के गिनती में आवेलें आ संगीत ( वादन आ गायन ), लोकगीत, लोककथा, लोकगाथा, लोकोक्ति, कहाउत, मुहावरा, बुझउवल, सुभाषित आदि वाचिक लोककला भा लोक साहित्य के विधा मानल जालें। सामान्य जन समुदाय भा समाज जब अपना मनोभाव के शब्द - स्वर के बदले देह का भाव - भंगिमा से उजागर करेला त ओकरे के लोकनृत्य कहल जाला। नृत्य काव्य के कायिक चेष्टा चाहे भावात...