का कहीं अपना मन के: हरेश्वर राय
हमरा अपने ऊपर खिझिआए के मन करता
हमरा दोसरो ऊपर खिसियाए के मन करता।
गड़हा के महकत पानी अइसन ठहरल बानी
आन्ही में पतई लेखा उड़ियाये के मन करता।
ना जाने कतना दिन भइल टकटकी लगवला
सावन में ढेला अस भिहिलाये के मन करता।
अगल- बगल के लोगवन के चरित्तर देख के
कबो रोवे, कबो खिलखिलाए के मन करता।
अब कतना दिन ले गूंग - बहिर बनल रहे के
हमरा ताड़ प चढ़के चिचियाए के मन करता।
हमरा दोसरो ऊपर खिसियाए के मन करता।
गड़हा के महकत पानी अइसन ठहरल बानी
आन्ही में पतई लेखा उड़ियाये के मन करता।
ना जाने कतना दिन भइल टकटकी लगवला
सावन में ढेला अस भिहिलाये के मन करता।
अगल- बगल के लोगवन के चरित्तर देख के
कबो रोवे, कबो खिलखिलाए के मन करता।
अब कतना दिन ले गूंग - बहिर बनल रहे के
हमरा ताड़ प चढ़के चिचियाए के मन करता।
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