मातृभासा प्रेम - डॉ. जयकान्त सिंह 'जय'
आज लोग तनिके में अलबला जाता। चार डाँड़ी अंगरेजी ना पढ़ें कि लगलें बात-बात में उहे झींके। जइसे कवनो सुसुआत अंगरेज के छीटा पर गइल होखे। अंगरेज रहलें स तहिया भोजपुरी बिहारी जादे मजबूत रहे। बाकिर देस के आजाद होखते ओकनिये के पोसपुत पोसुआ गद्दी धइलें आ अइसन अकरहर पदलें कि लोग बाग के चाल, चरित्र आ चेहरा कुल्ह चरखाए लागल। ललमुंहन के टूङ्ग टांङ्ग जबान पर चढ़ के मतारी का बोली के हुरपेट के बहरिआवे लागल। कुछेक लोग के छोड़के सभे ओकनी का कुकुर आ कुतिआ के नांव अपना बाल-बुतरू के राखके टूङ्ग टांङ्ग वाला इस्कूली में भेजल आपन सान-माख बुझे लागल। नकली अंगरेजन के सरकार बनल त ओकरे टूङ्ग टांङ्ग वाला भासा के आ भासा में पढ़े लिखेवाला के रोजी रोजगार देहल तय कइलस।
हिन्दी ओकर स्टेपनी भासा बनल बगल में टङ्गात चलल। जहाँ टूङ्ग टांङ्ग भासा के गाड़ी पंचर भइल कि काम चलावे भर स्टेपनी हिन्दी के कस लिआए। आ ई सब आउर देसी भसन के त अइसन धकिआवल कि ओकरा के बोले वाला लोग के देहाती, गंवार, निपढ़, भूचर, पिछड़ल आउर-आउर नांव रखके बेइज्जत कइल आ एक तरह से असभ्य कहल चालू कइलें स। लोग अपने लोग आ बोली-भासा से घिनाये आ पराये लागल। आपन कुल्ह भासा, संस्कार, बात-बेवहार बेकार बुझाए लागल। दुआर से गाय-गोरू पराए लागल आ जीभ बेरावत आ दाँत देखावत बिलायती कुकुर पोसाए लागल। जे कबो अपना माई-बाप के ना टहलवलस उहो सान से साँझ-सबेरे कुकुर के टहलावे-हगावे निकलल। आपन भासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक, दार्शनिक, आर्थिक आ व्यापारिक शिक्षा-दीक्षा बकवास बुझाए लागल। तब से जादा अब के गुलामी बारीकी से देह, दिल आ दिमाग पर लदाए लागल।
बाकिर जे लोग बिलायत जाके पढ़ल रहे ओकरा अपना देस, भासा, संस्कार, संस्कृति, शिक्षा आ पारिवारिक-सामाजिक सरोकार के मरम आ महातम बुझात रहे। तबे त अरविन्द जी, गान्ही जी, सुभास बाबू, सच्चिदानन्द सिन्हा जी, राजिंदर बाबू सभे अपना भासा आ संस्कार के अमल करे पर जोर देवे। एह लोग के साफ मत रहे कि ' लिहल जाव दुनिया का हर भासा आ विषय के ग्यान, बाकिर ओकरा के कवनो हालत में जनि छोड़ल जाव, जवना से बा आपन अलग पहचान।' बाकिर गंवे गंवे कुल्ह गूड़ गोबर हो गइल। अपना के आ अपना भासा-संस्कार के अपनावे वाला धोबर हो गइल। उहो दिन रहे जे केहू खड़ी बोली हिन्दी दू डांड़ी कढ़ावे कि लोग डांट के बोले - लगलऽ अंगरेजी छांटे। ई खड़ी बोली भी हमनी देसी भासा-भासी खातिर अंगरेजी से कम ना रहे।
मन पड़ता कि बुद्ध, कबीर, तुलसी सभे अपने बोली में आपन बात राखल। रवीन्द्र नाथ ठाकुर आपन गीतांजलि पहिले बंगले में लिखले रहस। गान्ही बाबा के आपन हिन्द स्वराज गुजरातिए में लिखाइल रहे। भारतीय संविधान बनाव समिति के अस्थायी अध्यक्ष आ अपना जबाना के प्रसिद्ध अंगरेजी के विद्वान सच्चिदानन्द सिन्हा जी से जब लंगट सिंह कालेज के व्याख्याता डॉ. धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी शास्त्री मिले उनका आवास पर पटना गइलें त लगले अंगरेजी झांटे। ऊ अंगरेजी झांटस आ सिन्हा साहेब भोजपुरी में बोलस। कुछ देर के बाद शास्त्री जी का अपना गलती के एहसास भइल। बाद में सिन्हा साहेब उनका के डांटत बोललें कि तोहार बाप हमरा सोझा अंगरेजी झंटिहें ?
तब शास्त्री जी लजा के क्षमा मँगले आ बाद में भोजपुरी संत साहित्य पर बहुते महातम वाला काम सब कइलें।
अइसहीं एक जाना खूब पैरवी कर करा के छपरा से राजिन्दर बाबू से मिले राष्ट्रपति भवन पहुँचले। उहाँ पहुँच के लगले खड़ी बोली हिन्दी बोकरे। जबकि ऊ भोजपुरी बोल सकत रहलें काहे कि भोजपुरी उनकर मातृभासा रहे। एह पर राजिन्दर बाबू उनका के डांटत बोललें कि जदि हम जनती जे तूं इहाँ आके हिन्दी-अंगरेजी झरबऽ त गेट पर से लौटवा दिहतीं। इहाँ तोहरा से नीमन हिन्दी आ अंगरेजी जाने-बोलेवाला आवेला। गाँव-जवार से आइल बाड़ऽ त अपना भासा में बोलऽ ताकि हमरो बुझाए कि केहू हमार आपन हमरा घर से आइल बा।
आज छोट-छोट लोग अपना के सामने वाला से ऊंच आ सेसर देखावे-जनावे खातिर अपना बोली-भासा में ना बोल-बतिआ के अंगरेजी आ खड़ी बोली में सान-माख से आपन बात राखऽता। राजिन्दर बाबू भोजपुरी समुझे-जाने वाला से बरमहल भोजपुरी बोलीं। अपना मलकिनी से पत्र-बेवहार भोजपुरिए में करीं। त एह बात पर कुछ लोग कहल कि अरे उनका मेहरारू का भोजपुरी छोड़के आउर भासा आवते ना रहे त ऊ का करतें। अब ई बताईं सभे कि जय प्रकाश बाबू के प्रभावती जी त पढ़ल-लिखल निपुन महिला रहली। राजिन्दर बाबू उनको के भोजपुरिए में चिट्ठी लिखले बाड़न। जेकर नमूना रउरा सभे के सोझा बा।
दुर्भाग्य वश जबसे भोजपुरी इलाका में इंग्लिश इस्कूलन के चलन बढ़ल तबसे डेढ़ अक्षरी विद्वान बनबना के उपरिआए-उपलाए लगलें। अंगरेजी के त मुँह मारीं, हिन्दिओ गबड़ाए लागल। भोजपुरी पढ़ल-लिखल त दूर मंच पर बोले में हाथ-गोड़ फूले-हिले लागल। चउबे चललें छबे बने त दूबे बन के घुरलें। नौकरशाह सब त अंगरेजी पढ़ के खुद के अंगरेजे मान लेलें आ आउर भारतीय लोग के आपन गुलाम। रोब-दाब आ ठसक उहे अंगरेजने वाला। नेता जी लोग ठर-ठिकदारी का कारखाना से निकल के आपन अइसन करनामा देखा रहल बा कि ओह लोग का सपनो में उहे ठर-ठिकदारी, दर-दलाली, लूट-खसोट, लगाव-बझाव आ माटी, सीमेंट, गिट्टी, छड़ के तेला बेला, आवंटन- बंदरबांट का कुसंस्कार से फुर्सते नइखे मिलत जे ऊ लोग अपना भासा, संस्कार, संस्कृति आ सुशिक्षा पर ध्यान देवे।
गद्दी दखलिअवले कुलनासी।
आ कुकुर सब सेवस कासी।।
जवना इलाका में आपन राजनीतिक पहचान बना के गान्ही राष्ट्रीय के के कहीं विश्व स्तर के नेता आ देस के राष्ट्रपिता कहइलें। जवना मातृभासा के बोले वाला राजिन्दर बाबू राष्ट्रपति हो गइलें। जेकरा उपदेस देके बुद्धदेव विश्वमानव बन गइलें। आज उहे भासा भोजपुरी हर तरह के अर्हता रखला के बावजूद संवैधानिक अधिकार पावे से वंचित बा आ भोजपुरी इलाका आ इलाका के बुद्धिजीवी, समाजसेवी, शिक्षाविद्, नेता-नौकरशाह सब संचित बा। एह से लमहर दुर्भाग्य का होई?
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