आलोचक के भूमिका: विष्णुदेव तिवारी
आलोचक ख़ातिर आपन, आपन युग, अापन इतिहास आ अपना साहित्यिक-सांस्कृतिक परंपरा के ज्ञान बहुत जरुरी होला। कवनो रचना के मर्म तक पहुँचे में एह से बड़ा मदत मिलेला आ ओकर अभिनव विवेचना जीवन के प्रति आस्था के कई-कई दुआर खोल देला। असवे महेश ठाकुर 'चकोर' के 'सर्व भाषा ट्रस्ट' से एगो किताब आइलि हा- 'जरुर कोई बात बा'। एह में कवि-गीतकार के पहिलके गीत बा- 'जरूर कोई बात बा'। ई 'चकोर के बड़ा प्रसिद्ध गीत ह। एकर शुरुआती कुछ पाँति बाड़ी स-
कोइल के बोली बोलत बाटे कउआ
जरूर कोई बात बा, विचार करीं रउआ
बकुला लगावे लागल बाटे चंदन
मुसवा के बिलड़ा कर ता अभिनंदन
बघवा दबाव ता बकरी के पँउआ
एहिजा, ई त' एकदम साफ बा कि ई पाँति आज के राजनीति के तिकड़म, नटरपन, दोगलई आ मौकापरस्ती के बोकला ओकाचत बाड़ी स, बाकिर एगो मर्मी आलोचक एह पंक्तियन के साथ पूरा गीत के संदर्भ साहित्यिक-सांस्कृतिक परंपरा के साथे-साथ कवि के वैयक्तिको जीवन के स्थिति-परिस्थिति से जोड़ी आ एकर व्याख्या समग्रता में करे के कोशिश करी। संभव बा, एह पंक्तियन के साथ ऊ आदिकाव्य 'रामायण' के अरण्यकांड के सैंतीसवा सर्ग में पहुँच जाउ, जेकरा दुसरा श्लोक में मारीच रावण के समझा रहल बा कि- "बबुआ, तोहरा के मिठबोलवा लोग त' ढेरे मिल जइहें बाकिर करुआ होखे आ हित करे वाला होखे, अइसन बात बोले वाला आ सुने वाला मिलल मुश्किल बा। हम साँच कहत बानीं, राम से मत अझुरा-
सुलभा: पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिन:।
अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ:।।
आलोचक सेकरा बाद तुलसीदास के 'रामचरितमानस' के दुअरा भी जा सकत बा, जहाँ भगवान शंकर भवानी से नीच लोग के चरित्र पर बात करत रावण के असलियत बतावत बाड़े। जब कुपदी रावण मारीच भिरी जाके ओकरा के गोड़ लागत बा, ओही घरी शंकरजी कहत बाड़े-
नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई।।
भयदायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल के कुसुम भवानी।।
(अरण्यकाण्ड/24 वाँ दोहा के ठीक पहिले के चउपाई)
तब 'चकोर' के गीत के अर्थ नीमन से ई खुली कि कतहूँ, राजनीतिए में ना, जीवन के कवनो क्षेत्र में- कला-संस्कृति, घर-परिवार-समाज हर कहीं- मिठबोलवा से पाला पड़े त ओकरा से छनकला के हद तक सचेत हो जाए के चाहीं काहें कि तय बा- ऊ अनर्थे करी। अतीत एकर गवाह बा।
'चकोर' के निजी जिनगी के खँघरला पर पता चल जाई कि देश के राजनीति के अधातम त' जवन बा तवन बड़ले बा, उनकरा घरो के दशा जरुर कुछ अइसन रहल बा जे से उनका कहे परल- 'जरुर कोई बात बा'। अइसन कुछ संकेत ऊ 'अप्पन बात' में कइले बाड़े।
रचनाकार आ ओकरा रचना में बिंब प्रतिबिंब के भाव कम-बेसी रहबे करी, एह बात के नइखे नकारल जा सकत। आज, साहित्य में, जवन विमर्शन के दौर चल रहल बा, ऊ बेहतर ढँग से एह बात के तस्दीक क' रहल बा।
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