अइसे काहें होत बा?: विष्णुदेव तिवारी

ई अच्छा बा
कि टच स्क्रीन वाला मोबाइल में
आपन थोबर
लॉक खुलते
एक क्षण ख़ातिर झलक जाता
आ अपना के बिना झँकलहूँ
ई अँका जाता कि उमिर के बघनोह
अब ओकरा के अतना खरोंच चुकल बा
कि ऊ गिनाई ना
एक दिन गोड़, चाहे हाथ, चाहे जीभ, चाहे मुँह
अचके
अँइठा जाई
आ तब…
का-का बिला जाई
केकरा पता बा?

केकरो नइखे पता कुछुओ
तबो लपेटाइल रहत बा
मन
ओही डूबा रसरी में
आजुओ
जइसे महतारी के संगे
ओकरा गरभ में
बन्हाइल रहत रहे
कबो
आँख बन कइले।

अतना कुछ हो हवा गइल
पुरुब के आदित
पच्छिम सरकले
तबो...
लरकत बा मन
आजुओ
अहकत बा
केहू से आपन कहाए ख़ातिर
ई नीके तरी जनला के बादो
कि आपन…

अइसे काहें होत बा?
बेर-बेर उहे काहें
मन परत बा
जे बेर-बेर आत्मा के तुरलस!
जे कबो टूटे ना
जरे ना
सूखे ना
गरे ना?
विष्णुदेव तिवारी, बक्सर, बिहार

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